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नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

                      नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।






नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥2-23॥

अर्थ : न शस्त्र इसे काट सकते हैं, न आग इसे जला सकती है... न पानी इसे भिगो सकता है, न हवा इसे सुखा सकती है... (यहां भगवान कृष्ण शरीर में मौजूद आत्मा की बात कर रहे हैं...)

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥2-37॥

अर्थ : यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि जीतते हो तो इस धरती को भोगोगे... इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन का नाम), और निश्चय करके युद्ध करो...

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥4-7॥

अर्थ : हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है, और अधर्म बढ़ता है... तब-तब मैं स्वयम् स्वयम् की रचना करता हूं...

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥4-8॥

अर्थ : साधु पुरुषों के कल्याण के लिए, और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए... तथा धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता हूं...

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥2-47॥

अर्थ : कर्म करना तो तुम्हारा अधिकार है, लेकिन फल की इच्छा से कभी नहीं... कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो...

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥2-62॥

अर्थ : विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे लगाव हो जाता है... इससे उनमें इच्छा पैदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है...

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥2-63॥

अर्थ : गुस्से से दिमाग खराब होता है और उससे याददाश्त पर पर्दा पड़ जाता है... याददाश्त पर पर्दा पड़ जाने से आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर आदमी खुद ही का नाश कर बैठता है...

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥3-35॥

अर्थ : अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमें कमियां भी हों, किसी और के अच्छी तरह किए काम से...
अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है, किसी और के काम से चाहे उसमें डर न हो...

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥3-21॥

अर्थ : क्योंकि जो एक श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं... वह जो करता है, उसी को प्रमाण मानकर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं...

श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥4-39॥

अर्थ : श्रद्धा रखने वाले, अपनी इन्द्रियों पर संयम कर ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं... और ज्ञान मिल जाने पर, जल्द ही परम शान्ति को प्राप्त होते हैं...

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥18-48॥

अर्थ : हे कौन्तेय, अपने जन्म से उत्पन्न (स्वाभाविक) कर्म को उसमें दोष होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए... क्योंकि सभी आरम्भों में (कर्मों में) ही कोई न कोई दोष होता है, जैसे अग्नि धुएं से ढकी होती है...

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥18-66॥

अर्थ : सभी धर्मों को त्याग कर (हर आश्रय त्याग कर), केवल मेरी शरण में बैठ जाओ...मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो...
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